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Sunday, September 27, 2009
Sunday, September 6, 2009
बनारस के कवि/शायर-केशव शरण
बनारस के कवि/शायर में इस बार केशव शरण की रचनाएं आप के लिये प्रस्तुत है। केशव शरण बनारस के जाने -पहचाने रचनाकार हैं। इनका जन्म 23-08-1960 को वाराणसी में हुआ, आप के पिता स्व० शिवब्रत सिंह यादव और माता का नाम श्रीमती बासमती देवी है और आप सरकारी सेवा में हैं। आप की प्रकाशित रचनाएं हैं- ‘तालाब के पानी में लड़की’, ‘जिधर खुला व्योम होता है’ [दोनों कविता-संग्रह], ‘दर्द के खेत में’ [ग़ज़ल-संग्रह] और ‘कडी़ धूप में’ [ हाइकू-संग्रह ]।
1. कौन अब है आने वाला :-
कौन अब है आने वाला ।
जा चुका है जाने वाला ।
हाथ मलता रह गया है,
पा न पाया पाने वाला ।
कौन उसको चुप कराये,
रो रहा है गाने वाला ।
तू तो थोडी़ दे तसल्ली,
हर कोई है ताने वाला ।
दर्द से वाकि़फ़ नहीं है,
दिल को वो समझाने वाला ।
क्या न ये उल्फ़त कराये,
काम ये दीवाने वाला ।
हो नहीं सकता है कोई,
उसके जैसा भाने वाला ।
छीन बैठा चांद मेरा,
मेघ काला छाने वाला ।
अब नहीं आबाद होगा,
मेरा घर वीराने वाला ।
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2. मुहब्बत के पीछे ज़माना पडा़ है :-
मुहब्बत के पीछे ज़माना पडा़ है।
मुझे प्यार अपना छुपाना पडा़ है।
बुरा होता दुनिया को नाराज़ करना,
मुझे अपने दिल को दुखाना पडा़ है।
यहाँ आज खुशियों के लाले हुए हैं,
जहां पर ग़मों का ख़ज़ाना पडा़ है।
जो मैं रो रहा था तो कोई न रोया,
सभी गा रहे हैं तो गाना पडा़ है।
बगा़वत कहीं इससे आसान होती,
मुझे खु़द को जितना मनाना पडा़ है।
नहीं कोई विश्वास रिश्तों पे हमको,
मगर जग के नाते निभाना पडा़ है।
कहाँ तेरे आगोश में मस्त रहता,
कहाँ पस्त तेरा दीवाना पडा़ है।
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3. बयां क्या दूं सफ़र की मुश्किलों पर :-
बयां क्या दूं सफ़र की मुश्किलों पर।
ये राहें ले न जाती मंजिलों पर।
बिखर जाना है इनको बीहडो़ में,
भरोसा क्या करूँ मैं काफ़िलों पर।
मैं तनहाई का जो इल्जाम धरता,
तो जाता वो तुम्हारी महफ़िलों पर।
बहुत भारी है दिलबर को गवाना,
जमाने भर के सारे हासिलों पर।
कोई-कोई समुन्दर में उतरता,
पडी़ रहती है दुनिया साहिलों पर।
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4. अजब मैं भी जफ़ाओं पर फ़िदा हूँ :-
अजब मैं भी जफ़ाओं पर फ़िदा हूँ।
हसीनों की अदाओं पर फ़िदा हूँ।
बरसना जो नहीं कुछ जानती हैं,
उन्हीं रंगी घटाओं पर फ़िदा हूँ।
पुराना पेड़ सूखा जा रहा है,
अमरबेलों,लताओं पर फ़िदा हूँ।
वतन की खुश्बुएं ले जा रहीं है,
विदेशों की हवाओं पर फ़िदा हूँ।
ग़रीबी भूल जाता हूँ मैं अपनी,
अमीरी की कथाओं पर फ़िदा हूँ।
अकेलापन नहीं जाता है लेकिन,
मैं इन्दर की सभाओं पर फ़िदा हूँ।
जो मायावी बदन की मालकिन है,
मैं ऐसी आत्माओं पर फ़िदा हूँ।
बढा़ ही जा रहा है मर्ज़ मेरा,
मगर तेरी दवाओं पर फ़िदा हूँ।
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5. अभी इतिहास का वो पल नहीं :-
अभी इतिहास का वो पल नहीं आया तो आयेगा।
हमारा वो सुनहरा कल नहीं आया तो आयेगा।
उम्मीदों के सहारे ही तो दुनिया चल रही है ये,
समस्याओं का कोई हल नहीं आया तो आयेगा।
जमाने से ये माली कह रहे हैं पेड़ अच्छा है,
अगर इस साल उस पर फल नहीं आया तो आयेगा।
डगर की शर्त पूरी है मुसाफ़िर चल पडा़ होगा,
नहर में गर लहर कर जल नहीं आया तो आयेगा।
नजूमी कह रहा है देखकर हाथों की रेखाएं,
तुम्हारा भाग्य है चंचल नहीं आया तो आयेगा।
किसी का हुश्न है मग़रूर क्या मिलना ग़रीबों से,
किसी का इश्क है पागल नहीं आया तो आयेगा।
जिसे हो देश की चिन्ता,जिसे परवाह जनता की,
कभी सरकार में वो दल नहीं आया तो आयेगा।
निवास- एस.2/564, सिकरौल,वाराणसी
मोबाइल नं०-9415295137
Friday, August 21, 2009
बनारस में एक कवि गोष्ठी
दिनांक 20-08-09 को वाराणसी में नई दिल्ली से पधारे श्री अमित दहिया ‘बादशाह’,कुलदीप खन्ना,सुश्री शिखा खन्ना,विकास आदि की उपस्थिति में श्री उमाशंकर चतुर्वेदी‘कंचन’ के निवास स्थान पर एक काव्य-गोष्ठी का आयोजन हुआ जिसमें इनके और मेरे अतिरिक्त देवेन्द्र पाण्डेय,नागेश शाण्डिल्य,विन्ध्याचल पाण्डेय, ,शिवशंकर ‘बाबा’,अख्तर बनारसी आदि कवि मित्रों ने भाग लेकर काव्य-गोष्ठी को एक ऊचाँई प्रदान की।प्रस्तुत काव्य-गोष्ठी के कुछ चित्र मेरे ब्लॉग पर देंखे ....
कुलदीप खन्ना,देवेन्द्र पांडे,अमित दहिया'बादशाह' उमाशंकर चतुर्वेदी'कंचन'
शिखा खन्ना और विकास
उमाशंकर चतुर्वेदी'कंचन',विंध्याचल पाण्डेय,प्रसन्न वदन चतुर्वेदी और शिवशंकर 'बाबा'
शिखा खन्ना और विकास
कुलदीप खन्ना,देवेन्द्र पांडे,
देवेन्द्र पांडे,अमित दहिया'बादशाह'
Sunday, August 9, 2009
बनारस के कवि और शायर/रामदास अकेला
बनारस के शायर की अगली कडी़ में रामदास अकेला जी की रचनाएं प्रस्तुत हैं।आप की जन्मतिथि है २४-०३-१९४२|जन्मतिथि है-ग्राम-लखनेपुर,पो०-घनश्यामपुर जिला-जौनपुर| आप के पिता का नाम है- स्व० बलीराम भगत।आप प्रवर अधीक्षक [डाक विभाग] के पद से सेवा निवृत्त होकर साहित्य सेवा में संलग्न है।गीत,ग़ज़ल,मुक्तक एवं नवगीतों की रचना आप को विशेष रूप से पसन्द है।आप द्वारा रचित ‘आईने बोलते हैं’ ग़ज़ल संग्रह 1999 में प्रकाशित।आप की बहुत सी रचनाएं दूरदर्शन और आकाशवाणी पर प्रसारित हो चुकी हैं।आप अदबी-संगम[हिन्दी-उर्दू साहित्यिक संस्था]वाराणसी के अध्यक्ष तथा प्रगतिशील लेखक संघ के उपाध्यक्ष भी हैं।
1. कैसे-कैसे इसे गुजारी है :-
कैसे-कैसे इसे गुजारी है।
ज़िन्दगी यार फिर भी प्यारी है।
मालोज़र की कोई कमी तो नही,
हाँ मगर प्यार की दुश्वारी है।
ज़िन्दगी कौन कब तलक ढोता,
ये तो खु़द मौत की सवारी है।
बाप मरता तो भला कैसे वो,
जिसकी बेटी अभी कुँवारी है।
भार से डालियों के टूट रहे,
ये दरख्तों की अदाकारी है।
ये तो गुज़री है नींद में यारों,
भरम रहा कि शब्बेदारी है।
होश में कैसे ’अकेला’ रहता,
होशवालों में मारामारी है।
--------------------------------
2. ज़िन्दगी के वास्ते क्या-क्या है :-
ज़िन्दगी के वास्ते क्या-क्या है करता आदमी।
अपनी ही परछाइयों से डर के मरता आदमी।
अपने हक़ में कोई भी तामीर क्या कर पायेगा,
खण्डहरों की ईंट सा खुद ही बिखरता आदमी।
रख दिया है आईना जबसे सड़क के बीच में,
मुँह बनाता फेरकर चेहरा बनाता आदमी।
रंग, नस्लों, धर्म,मज़हब जातियां दर जातियां,
अनगिनत फिरकों में जुड़ता और बिखरता आदमी।
थे ज़मीं था आसमां परवाज में इसके कभी,
परकटे पंछी सा है अब फड़फडा़ता आदमी।
दावतों के बाद जूठन फेंक देता जब कोई,
ढेर पर कुडे़ के चुन कर पेट भरता आदमी।
किस कदर नाराज़ लगता है ये अपने आप से,
बुदबुदाता फिर रहा है पागलों सा आदमी।
ज़िन्दगी भर दूसरों की फ़िक्र में उलझा रहा,
अपने बारे में कभी कुछ फ़िक्र करता आदमी।
एक मुट्ठी खा़क पर करता रहा इतना गुमान,
काश मिट्टी की हकी़क़त को समझता आदमी।
अपनी इक पहचान तो इसको बनानी चाहिए,
काफ़िले के साथ हो या हो अकेला आदमी।
-----------------------------------------
3.बोलियाँ अब न भाषाएं वही :-
बोलियाँ अब न भाषाएं वही।
कब तलक गायेंगे गाथाएं वही।
कारवां लेकर हमारा चल पडे़,
जो खडी़ करते हैं बाधाएं वही।
आँख के अन्धे हैं लेकिन लिख रहे,
कौम के माथे की रेखाएं वही।
हम रहे अब भी लकीरों के फकीर,
तोड़ते अक्सर हैं सीमाएं वही।
अस्मिता जिनसे वतन की दावं पर,
हाय वन्देमातरम गाएं वही।
चीखते हैं जो धरम के नाम पर,
नफ़रतों की आग भड़काएं वही।
हाथ में लेकर चले हो आईना,
देखना पत्थर न फिर आएं वही।
चल ‘अकेला’कुछ नई बातें करें,
मत सुनाना फिर से कविताएं वही।
------------------------------------------
4. चढ़ तो गये ऊँचाइयों पे धूमधाम से :-
चढ़ तो गये ऊँचाइयों पे धूमधाम से।
बदली नज़र तो गिर पडे़ औंधे धडा़म से।
करता रहा सलाम,कभी झुक के दूर से,
करने लगा है बात वही तुम-तडा़म से।
बदले हुए मौसम की ये तासीर खूब है,
मेढक भी परेशान है सर्दी-जु़काम से।
हाथों से निकल तोते बहुत दूर उड़ गये,
रखा था जिन्हें हमने बहुत एहतेमाम से।
औरों के हाल पर तो हँसे भूल क्यूँ गये,
तुमको भी गुजरना है कभी उस मुकाम से।
गुम होके रह गया है इसी भीड़ में कहीं,
निकला तो ‘अकेला’ था किसी और काम से।
-------------------------------------------
5. संसद से सड़कों तक देखा :-
संसद से सड़कों तक देखा सब उद्योग लगे।
बेकारी से फिर भी जूझते हमको लोग लगे।
खुद क्या थे,क्या हैं,क्या होंगे;क्या मालूम उन्हें,
औरों का कद छोता करने में जो लोग लगे।
वो क्या जाने भूख की शिद्दत कीमत रोटी की,
भक्तों के आटा-घी से ही जिनका भोग लगे।
हम खोये रहते तलाश में जीवन भर जिसकी,
उनकी नज़र में एक समाधी और संभोग लगे।
ईर्ष्या,द्वेष,अहं और नफरत,लालच,बेइमानी;
एक बेचारे मन को जाने कितने रोग लगे।
तनहाई में यूँ ही अकेला भटकेगा कब तक,
साथ तुम्हारे लोग भी आयें कब संयोग लगे।
1. कैसे-कैसे इसे गुजारी है :-
कैसे-कैसे इसे गुजारी है।
ज़िन्दगी यार फिर भी प्यारी है।
मालोज़र की कोई कमी तो नही,
हाँ मगर प्यार की दुश्वारी है।
ज़िन्दगी कौन कब तलक ढोता,
ये तो खु़द मौत की सवारी है।
बाप मरता तो भला कैसे वो,
जिसकी बेटी अभी कुँवारी है।
भार से डालियों के टूट रहे,
ये दरख्तों की अदाकारी है।
ये तो गुज़री है नींद में यारों,
भरम रहा कि शब्बेदारी है।
होश में कैसे ’अकेला’ रहता,
होशवालों में मारामारी है।
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2. ज़िन्दगी के वास्ते क्या-क्या है :-
ज़िन्दगी के वास्ते क्या-क्या है करता आदमी।
अपनी ही परछाइयों से डर के मरता आदमी।
अपने हक़ में कोई भी तामीर क्या कर पायेगा,
खण्डहरों की ईंट सा खुद ही बिखरता आदमी।
रख दिया है आईना जबसे सड़क के बीच में,
मुँह बनाता फेरकर चेहरा बनाता आदमी।
रंग, नस्लों, धर्म,मज़हब जातियां दर जातियां,
अनगिनत फिरकों में जुड़ता और बिखरता आदमी।
थे ज़मीं था आसमां परवाज में इसके कभी,
परकटे पंछी सा है अब फड़फडा़ता आदमी।
दावतों के बाद जूठन फेंक देता जब कोई,
ढेर पर कुडे़ के चुन कर पेट भरता आदमी।
किस कदर नाराज़ लगता है ये अपने आप से,
बुदबुदाता फिर रहा है पागलों सा आदमी।
ज़िन्दगी भर दूसरों की फ़िक्र में उलझा रहा,
अपने बारे में कभी कुछ फ़िक्र करता आदमी।
एक मुट्ठी खा़क पर करता रहा इतना गुमान,
काश मिट्टी की हकी़क़त को समझता आदमी।
अपनी इक पहचान तो इसको बनानी चाहिए,
काफ़िले के साथ हो या हो अकेला आदमी।
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3.बोलियाँ अब न भाषाएं वही :-
बोलियाँ अब न भाषाएं वही।
कब तलक गायेंगे गाथाएं वही।
कारवां लेकर हमारा चल पडे़,
जो खडी़ करते हैं बाधाएं वही।
आँख के अन्धे हैं लेकिन लिख रहे,
कौम के माथे की रेखाएं वही।
हम रहे अब भी लकीरों के फकीर,
तोड़ते अक्सर हैं सीमाएं वही।
अस्मिता जिनसे वतन की दावं पर,
हाय वन्देमातरम गाएं वही।
चीखते हैं जो धरम के नाम पर,
नफ़रतों की आग भड़काएं वही।
हाथ में लेकर चले हो आईना,
देखना पत्थर न फिर आएं वही।
चल ‘अकेला’कुछ नई बातें करें,
मत सुनाना फिर से कविताएं वही।
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4. चढ़ तो गये ऊँचाइयों पे धूमधाम से :-
चढ़ तो गये ऊँचाइयों पे धूमधाम से।
बदली नज़र तो गिर पडे़ औंधे धडा़म से।
करता रहा सलाम,कभी झुक के दूर से,
करने लगा है बात वही तुम-तडा़म से।
बदले हुए मौसम की ये तासीर खूब है,
मेढक भी परेशान है सर्दी-जु़काम से।
हाथों से निकल तोते बहुत दूर उड़ गये,
रखा था जिन्हें हमने बहुत एहतेमाम से।
औरों के हाल पर तो हँसे भूल क्यूँ गये,
तुमको भी गुजरना है कभी उस मुकाम से।
गुम होके रह गया है इसी भीड़ में कहीं,
निकला तो ‘अकेला’ था किसी और काम से।
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5. संसद से सड़कों तक देखा :-
संसद से सड़कों तक देखा सब उद्योग लगे।
बेकारी से फिर भी जूझते हमको लोग लगे।
खुद क्या थे,क्या हैं,क्या होंगे;क्या मालूम उन्हें,
औरों का कद छोता करने में जो लोग लगे।
वो क्या जाने भूख की शिद्दत कीमत रोटी की,
भक्तों के आटा-घी से ही जिनका भोग लगे।
हम खोये रहते तलाश में जीवन भर जिसकी,
उनकी नज़र में एक समाधी और संभोग लगे।
ईर्ष्या,द्वेष,अहं और नफरत,लालच,बेइमानी;
एक बेचारे मन को जाने कितने रोग लगे।
तनहाई में यूँ ही अकेला भटकेगा कब तक,
साथ तुम्हारे लोग भी आयें कब संयोग लगे।
Friday, July 31, 2009
एक शायर/ डा0 गिरिराजशरण अग्रवाल
एक शायर के इस अंक में डा० गिरिराजशरण अग्रवाल की रचनाएं प्रस्तुत हैं।डा० गिरिराजशरण अग्रवाल का जन्म सन 1944 ई० में सम्भल[उ०प्र०]में हुआ।डा०अग्रवाल की पहली पुस्तक सन 1964 ई० में प्रकशित हुई,तबसे आप द्वारा लिखित और सम्पादित एक सौ से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं,एकांकी,व्यंग्य,ललित निबन्ध और बाल साहित्य के लेखन में संलग्न डा० गिरिराजशरण अग्रवाल वर्तमान में वर्धमान स्नातकोत्तर महाविद्यालय,बिजनौर में हिन्दी विभाग में रीडर एवं अध्यक्ष हैं।हिन्दी शोध तथा सन्दर्भ साहित्य की दृष्टि से प्रकाशित उनके विशिष्ट ग्रन्थों-`शोध सन्दर्भ’,`सूर साहित्य सन्दर्भ’ और `हिन्दी साहित्य सन्दर्भ कोश’ को गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है।
पुरस्कार एवं सम्मान-उ०प्र० हिन्दी संस्थान,लखनऊ द्वारा व्यंग्यकृति ’बाबू झोलानाथ’[1998] तथा‘राजनीति में गिरगिटवाद’[2002] पुरस्कृत;राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग,नई दिल्ली द्वारा‘मानवाधिकार:दशा और दिशा’[1999] पुरस्कृत।’आओ अतीत में लौट चलें’ पर उ०प्र० हिन्दी संस्थान,लखनऊ द्वारा ’सूर पुरस्कार’ एवं डा० रतनलाल शर्मा स्मृति ट्रस्ट प्रथम पुरस्कार।अखिल भारतीय टेपा सम्मेलन,उज्जैन द्वारा सहस्त्राब्दि सम्मान [2000];अनेक अन्य संस्थाओं द्वारा सम्मानोपाधियाँ प्रदत्त।
पता-16 साहित्य विहार,बिजनौर[उ०प्र०]
फोन-01352-262375,२६३२३२
फुलवारी/पाँच रचनाकारों की रचनायें
1-ग़ज़ल/महेश अग्रवाल
हार किसकी है और किसकी फतह कुछ सोचिये।
जंग है ज्यादा जरुरी या सुलह कुछ सोचिये।
यूं बहुत लम्बी उडा़नें भर रहा है आदमी,
पर कहीं गुम हो गई उसकी सतह कुछ सोचिये।
मौन है इन्सानियत के कत्ल पर इन्साफ-घर,
अब कहाँ होगी भला उस पर जिरह कुछ सोचिये।
अब कहाँ ढूँढें भला अवशेष हम इमान के,
खो गई सम्भावना वाली जगह कुछ सोचिये।
दे न पाये रोटियाँ बारूद पर खर्चा करे,
या खुदा अब बन्द हो ऐसी कलह कुछ सोचिये।
आदमी ’इन्सान’ बनकर रह नहीं पाया यहाँ,
क्या तलाशी जायेगी इसकी वजह कुछ सोचिये।
पता-71,लक्ष्मी नगर,रायसेन रोड
भोपाल-462021 म.प्र.
मो.-9229112607
------------------------------------------
2-ग़ज़ल/कृष्ण सुकुमार
भड़कने की पहले दुआ दी गयी थी।
मुझे फिर हवा पर हवा दी गयी थी।
मैं अपने ही भीतर छुपा रह गया हूँ,
ये जीने की कैसी अदा दी गयी थी।
बिछु्ड़ना लिखा था मुकद्दर में जब तो,
पलट कर मुझे क्यों सदा दी गयी थी।
अँधेरों से जब मैं उजालों की जानिब
बढा़,शम्मा तब ही बुझा दी गयी थी।
मुझे तोड़ कर फिर से जोडा़ गया था,
मेरी हैसियत यूँ बता दी गयी थी।
सफर काटकर जब मैं लौटा तो पाया,
मेरी शख्सियत ही भुला दी गयी थी।
गुनहगार अब भी बचे फिर रहे हैं,
तो सोचो किसे फिर सज़ा दी गयी थी।
पता-193/7,सोलानी कुंज,
भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थान,
रुड़की-247667[उत्तराखण्ड]
--------------------------------
3-ग़ज़ल/माधव कौशिक
खुशबुओं को जुबान मत देना।
धूप को जुबान सायबान मत देना।
अपना सब कुछ तो दे दिया तुमने,
अब किसी को लगान मत देना।
कोई रिश्ता ज़मीन से न रहे,
इतनी ऊँची उडा़न मत देना।
उनके मुंसिफ़,अदालतें उनकी,
देखो,सच्चा बयान मत देना।
जिनके तरकश में कोई तीर नहीं,
उनको साबुत कमान मत देना।
पता-1110,सेक्टर-41-बी
चण्डीगढ़-160036
-----------------------
4-ग़ज़ल/मुफ़लिस लुधियानवी
हर मुखौटे के तले एक मुखौटा निकला।
अब तो हर शख्स के चेहरे ही पे चेहरा निकला।
आजमाईश तो गलत-फ़हमी बढा़ देती है,
इम्तिहानों का तो कुछ और नतीजा निकला।
दिल तलक जाने का रास्ता भी तो निकला दिल से,
ये शिकायत तो फ़क़त एक बहाना निकला।
सरहदें रोक न पायेंगी कभी रिश्तों को,
खुशबुओं पर न कभी कोई भी पहरा निकला।
रोज़ सड़कों पे गरजती है ये दहशत-गर्दी,
रोज़,हर रोज़ शराफत का जनाज़ा निकला।
तू सितम करने में माहिर,मैं सितम सहने में,
ज़िन्दगी!तुझसे तो रिश्ता मेरा गहरा निकला।
यूँ तो बाज़ार की फ़ीकी़-सी चमक सब पर है,
गौर से देखा तो हर शख्स ही तन्हा निकला।
पता-614/33 शाम नगर,
लुधियाना-141001
---------------------------------
5-ग़ज़ल/गिरधर गोपाल गट्टानी
किसने रौंदी ये फुलवारियाँ।
मेरी केशर-पगी क्यारियाँ।
हमको कैसा पडो़सी मिला,
दे रहा सिर्फ दुश्वारियाँ।
तेग की धार पर टाँग दी,
नौनिहालों की किलकारियाँ।
हमको कैसे मसीहा मिले,
बढ़ रही रोज़ बीमारियाँ।
छोड़िये भी, न अब कीजिये,
दुश्मनों की तरफ़दारियाँ।
पता-मातृ छाया,
मुख्य मार्ग,बैरसिया,
भोपाल[म.प्र.]
हार किसकी है और किसकी फतह कुछ सोचिये।
जंग है ज्यादा जरुरी या सुलह कुछ सोचिये।
यूं बहुत लम्बी उडा़नें भर रहा है आदमी,
पर कहीं गुम हो गई उसकी सतह कुछ सोचिये।
मौन है इन्सानियत के कत्ल पर इन्साफ-घर,
अब कहाँ होगी भला उस पर जिरह कुछ सोचिये।
अब कहाँ ढूँढें भला अवशेष हम इमान के,
खो गई सम्भावना वाली जगह कुछ सोचिये।
दे न पाये रोटियाँ बारूद पर खर्चा करे,
या खुदा अब बन्द हो ऐसी कलह कुछ सोचिये।
आदमी ’इन्सान’ बनकर रह नहीं पाया यहाँ,
क्या तलाशी जायेगी इसकी वजह कुछ सोचिये।
पता-71,लक्ष्मी नगर,रायसेन रोड
भोपाल-462021 म.प्र.
मो.-9229112607
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2-ग़ज़ल/कृष्ण सुकुमार
भड़कने की पहले दुआ दी गयी थी।
मुझे फिर हवा पर हवा दी गयी थी।
मैं अपने ही भीतर छुपा रह गया हूँ,
ये जीने की कैसी अदा दी गयी थी।
बिछु्ड़ना लिखा था मुकद्दर में जब तो,
पलट कर मुझे क्यों सदा दी गयी थी।
अँधेरों से जब मैं उजालों की जानिब
बढा़,शम्मा तब ही बुझा दी गयी थी।
मुझे तोड़ कर फिर से जोडा़ गया था,
मेरी हैसियत यूँ बता दी गयी थी।
सफर काटकर जब मैं लौटा तो पाया,
मेरी शख्सियत ही भुला दी गयी थी।
गुनहगार अब भी बचे फिर रहे हैं,
तो सोचो किसे फिर सज़ा दी गयी थी।
पता-193/7,सोलानी कुंज,
भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थान,
रुड़की-247667[उत्तराखण्ड]
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3-ग़ज़ल/माधव कौशिक
खुशबुओं को जुबान मत देना।
धूप को जुबान सायबान मत देना।
अपना सब कुछ तो दे दिया तुमने,
अब किसी को लगान मत देना।
कोई रिश्ता ज़मीन से न रहे,
इतनी ऊँची उडा़न मत देना।
उनके मुंसिफ़,अदालतें उनकी,
देखो,सच्चा बयान मत देना।
जिनके तरकश में कोई तीर नहीं,
उनको साबुत कमान मत देना।
पता-1110,सेक्टर-41-बी
चण्डीगढ़-160036
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4-ग़ज़ल/मुफ़लिस लुधियानवी
हर मुखौटे के तले एक मुखौटा निकला।
अब तो हर शख्स के चेहरे ही पे चेहरा निकला।
आजमाईश तो गलत-फ़हमी बढा़ देती है,
इम्तिहानों का तो कुछ और नतीजा निकला।
दिल तलक जाने का रास्ता भी तो निकला दिल से,
ये शिकायत तो फ़क़त एक बहाना निकला।
सरहदें रोक न पायेंगी कभी रिश्तों को,
खुशबुओं पर न कभी कोई भी पहरा निकला।
रोज़ सड़कों पे गरजती है ये दहशत-गर्दी,
रोज़,हर रोज़ शराफत का जनाज़ा निकला।
तू सितम करने में माहिर,मैं सितम सहने में,
ज़िन्दगी!तुझसे तो रिश्ता मेरा गहरा निकला।
यूँ तो बाज़ार की फ़ीकी़-सी चमक सब पर है,
गौर से देखा तो हर शख्स ही तन्हा निकला।
पता-614/33 शाम नगर,
लुधियाना-141001
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5-ग़ज़ल/गिरधर गोपाल गट्टानी
किसने रौंदी ये फुलवारियाँ।
मेरी केशर-पगी क्यारियाँ।
हमको कैसा पडो़सी मिला,
दे रहा सिर्फ दुश्वारियाँ।
तेग की धार पर टाँग दी,
नौनिहालों की किलकारियाँ।
हमको कैसे मसीहा मिले,
बढ़ रही रोज़ बीमारियाँ।
छोड़िये भी, न अब कीजिये,
दुश्मनों की तरफ़दारियाँ।
पता-मातृ छाया,
मुख्य मार्ग,बैरसिया,
भोपाल[म.प्र.]
Wednesday, July 15, 2009
बनारस के शायर /नरोत्तम शिल्पी
बनारस के कवि/शायर में इस बार आप नरोत्तम शिल्पी की रचनाओं का आनन्द उठायेंगे।नरोत्तम शिल्पी का जन्म २० जनवरी सन १९४५ को काज़ीपुरा खुर्द,औरंगाबाद,वाराणसी में हुआ।आपके पिताजी का नाम मेवालाल विश्वकर्मा तथा माता का नाम श्रीमती राजकुमारी देवी है।आप मुर्तिकला और चित्रकला के जानकार हैं और इसी लिये आप ’शिल्पी’ नाम से जाने जाते हैं।आप की संगीत और नाट्य में बेहद रुचि रखते हैं।आप की प्रकाशित पुस्तक है-बुतों के बीच।आप का पता है-सी-८/२८ चेतगंज,वाराणसी।यहाँ इनकी चार ग़ज़लें और एक गीत प्रस्तुत है-
1. वक्त की शायद ये हैं अंगडा़इयाँ :-
वक्त की शायद ये हैं अंगडा़इयाँ।
हैं जुदा मुझसे मेरी परछाइयाँ।
क्यूं कहूँ तनहा कभी मैं ना रहा,
भीड़ में हैं खल रहीं तनहाइयाँ।
धुन सुनी है जिन्दगानी के खि़लाफ़,
मौत की दस्तक हैं ये शहनाइयाँ।
कर रहे थे रहबरी जो एक दिन,
खोदते हैं अब तो वे ही खाइयाँ।
साथ में आया हूँ जिसके मैं यहाँ,
हो मुबारक उसको ये ऊँचाइयाँ।
नाम शिल्पी का बहुत बदनाम है,
क्या हुआ,बढ़ जायेगी रुसवाइयाँ।
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2. दबे पाँव आती है यादें तुम्हारी :-
दबे पाँव आती है यादें तुम्हारी।
उसी दम मचलती है धड़कन हमारी।
कलम साथ होती नहीं है हमेशा,
तसव्वुर बनाता है तस्वीर प्यारी।
हुए चन्द अशआर तेरी बदौलत,
भरी गोद कागज़ की जो थी कुँआरी।
न आए न आए कहा पर न आए,
भरे आह ये मज्बूरियाँ ये बेचारी।
करम है सनम का लुटाता है जलवा,
तबर्रुख में उलझा सनम का पुजारी।
रहम कर के क्या दे दिया ये तो सोचो,
भला कैसे जिये ये भूखा भिखारी।
जरा साथ बैठो कहीं पर कभी भी,
सुनाएं कि ’शिल्पी’ ने कैसे गुजारी।
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3. ऐसी पेचीदगी कहाँ होगी :-
ऐसी पेचीदगी कहाँ होगी।
अपनी सी ज़िन्दगी कहाँ होगी।
दर्द सहता ही नहीं पीता हूँ,
इतनी बेचारगी कहाँ होगी।
तंग दस्ती में समझना आसां,
कितनी पाबन्दगी कहाँ होगी।
फूल तो गढ़ के बना सकता हूँ,
पर वही ताज़गी कहाँ होगी।
बोझ इतना लदा है काँधे पर,
मुझसे आवारगी कहाँ होगी।
हाथ उठते नहीं दुआ के लिए,
फिर तो अब बन्दगी कहाँ होगी।
मयकदा बन्द पडा़ है कबसे,
चल के फिर रिन्दगी कहाँ होगी।
हूँ तो सादामिज़ाज पर ’शिल्पी’,
फ़न में वो सादगी कहाँ होगी ।
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4. बैठे हैं क्यूं तनहा-तनहा :-
बैठे हैं क्यूं तनहा-तनहा।
मैं भी तो हूँ तनहा-तनहा।
पास चलूं क्या सोचेंगे वो,
बस ये सोचूँ तनहा-तनहा।
संबंधो में अरमानों का,
होता है खूँ तनहा-तनहा।
जो पाया सब जग जाहिर है,
खोकर ढूढूँ तनहा-तनहा।
मंजिल कितनी दूर अभी है,
पग-पग नापूँ तनहा-तनहा।
सारे साथी भूखे होंगे,
कैसे खालूँ तनहा-तनहा।
रिश्ते सबके आगे-पीछे,
किसको मानूँ तनहा-तनहा।
तोड़ के बन्धन हर रिश्ते का,
जाते हैं यूँ तनहा-तनहा।
दर्द बुतों का सुनने वाला,
’शिल्पी’ है तू तनहा-तनहा।
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5. गीत/ देते रहना प्यार सभी को :-
देते रहना प्यार सभी को,
लेते रहना प्यार सभी से।
करके देखो खूब मिलेगी,
इज्जत तुमको यार सभी से।
जिसकी कद्र करोगे तुम,
निश्चित वह कद्र करेगा।
प्यार कदाचित जिसको दोगे,
तुमको भद्र कदेगा।
थोडी़ सी खुदगर्जी आई,
पाओगे धिक्कर सभी से.............
खरी बात खोटी कहलाती,
लगती बहुत बुरी है।
स्वाभिमान पर ठेस लगे और,
दिल पे चले छुरी है।
मीठी बोली बोलोगे तो,
लूटोगे सत्कार सभी से.....
दुनिया वाले इक दूजे से,
रखते खूब अपेक्षा।
प्रतिफल अच्छा नहीं मिला तो,
करते खूब उपेक्षा।
करो समीक्षा,पुनः प्रतीक्षा,
कहता समय पुकार सभी से......
सींग,नुकीले दंत और नख,
द्वन्द्व हेतु पाया हर प्राणी।
हर से मिली पृथक मानव को,
बुद्धि,जिह्वा,वाणी।
प्रतिद्वन्दी ’शिल्पी’ बहुतेरे,
रखना शुद्ध विचार सभी से........
Saturday, June 13, 2009
बनारस के कवि/शायर-आनंद परमानंद
बनारस के शायरों में आनन्द परमानन्द का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। इस बार आप इन्हीं की रचनाओं का आनन्द उठायेंगे।
आनन्द परमानन्द जी का जन्म १ मई सन १९३९ ई० को हुआ। आपके पिताजी का नाम स्व० पुरुषोत्तम सिंह तथा आपका जन्म स्थान ग्राम-धानापुर, पो०-परियरा,जिला-वाराणसी है। आप गीत ग़ज़लों के काव्यमंचों के चर्चित कवि हैं तथा आप की निबन्ध लेखन, प्राचीन इतिहास और पुरातत्व में बेहद रुचि है। आप की प्रकाशित पुस्तकें हैं :- वाणी चालीसा, सड़क पर ज़िन्दगी [ग़ज़ल संग्रह] आदि।
आनन्द परमानन्द जी का जन्म १ मई सन १९३९ ई० को हुआ। आपके पिताजी का नाम स्व० पुरुषोत्तम सिंह तथा आपका जन्म स्थान ग्राम-धानापुर, पो०-परियरा,जिला-वाराणसी है। आप गीत ग़ज़लों के काव्यमंचों के चर्चित कवि हैं तथा आप की निबन्ध लेखन, प्राचीन इतिहास और पुरातत्व में बेहद रुचि है। आप की प्रकाशित पुस्तकें हैं :- वाणी चालीसा, सड़क पर ज़िन्दगी [ग़ज़ल संग्रह] आदि।
1. ज़िन्दगी रख सम्भाल कर साथी :-
ज़िन्दगी रख सम्भाल कर साथी।
अब न कोई मलाल कर साथी।
जिनके घर रौशनी नहीं पहुँची,
उन ग़रीबों का ख्याल कर साथी।
गाँजना मत विचार के कूड़े,
फेंक दो सब निकाल कर साथी।
जिनके उत्तर तुम्हें नहीं मिलते,
अपने भीतर सवाल कर साथी।
वक्त तुमको निहारता है रोज़,
आँख में आँख डालकर साथी।
कोई तेरा नहीं ज़माने में,
मत रखो भ्रम ये पालकर साथी।
देखकर यह मिज़ाज जोखिम का,
वक्त का इस्तेमाल कर साथी।
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2. सघन कुंज की ओ!लता-वल्लरी सी :-
सघन कुंज की ओ!लता-वल्लरी सी।
सुवासित रहो भोर की पंखुरी सी।
मैं आसावरी राग में गा रहा हूँ,
तू बजती रहो रात भर बांसुरी सी।
नमित लोचना-सौम्य-सुंदर,सुअंगी,
मेरे गंधमादन की अलकापुरी सी।
महारात्रि की देवि मातंगिनी सी,
मेरी जिन्दगी है खुली अंजुरी सी।
ये यौवन,ये तारुण्य,ये शब्द सौरभ,
हो परिरम्भ की मद भरी गागरी सी।
मेरी आँख की झील में तैर जाओ,
परी देश की ओ नशीली परी सी।
तू कविता की रंगीन संजीवनी है,
सुरा-कामिनी काम कादम्बरी सी।
मैं तेरे लिये फिर से ’आनंद’ में हूँ,
न जाओ अभी रात तुम बावरी सी।
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3. अब नहीं दशरथ नहीं रनिवास है :-
अब नहीं दशरथ नहीं रनिवास है।
राम सा लेकिन मेरा बनवास है।
शुभ मुहूरत क्या पता इस देश में,
जन्म से अब तक यहाँ खरमास है।
वक़्त घसियारे के हाथों कट रही,
रात-दिन जैसे उमर की घास है।
शहर से गुस्से में आयी जो इधर,
मौत का कल मेरे घर अभ्यास है।
सभ्यता ने कल कहा ऐ आदमी,
अब तो मैंने ले लिया सन्यास है।
ज़िन्दगी शिकवा करे फुर्सत कहाँ,
हर तरफ पूरा विरोधाभास है।
क्या पता घर का लिखूँ ऐ दोस्तों,
हर गली,हर मोड़ पर आवास है।
अर्थ तो निर्भर है सचमुच आप पर,
शब्द का भावों से पर विन्यास है ।
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4. प्रगति के हर नये आयाम को वरदान कह देना :-
प्रगति के हर नये आयाम को वरदान कह देना।
नये बदलाव को इस दौर का सम्मान कह देना।
न मज़हब-धर्म, छूआ-छूत,मानव-भेद तू कहना,
अगर इतिहास पूछेगा तो बस इंसान कह देना।
कहीं जब भी चले चर्चा तुम्हारे देश गौरव की,
भले मरुभूमि है लेकिन तू राजस्थान कह देना।
बदलती मान्यताओं में कठिन संघर्ष होते हैं,
जो छूटा भीड़ में खोता है वो पहचान कह देना।
चुनावों की खुली रंजिश से हालत गांव की बिगडी़,
हैं चिंता में बहुत डूबे हुए खलिहान कह देना।
जो शासन आम जनता की हिफ़ाज़त कर नहीं सकता,
समय उसको बदल देता है ये श्रीमान कह देना।
व्यवस्था चरमराकर धीरे-धीरे टूट जाती है,
उपेक्षित हो गये शासन में यदि विद्वान कह देना।
हों जलसे या अनुष्ठानों के व्रत-पर्वों के पारायण,
खु़दा या राम कहना और हिन्दुस्तान कह देना।
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5. क्या कहूँ किन-किन परिस्थितियों में कब होता हूँ मैं :-
क्या कहूँ किन-किन परिस्थितियों में कब होता हूँ मैं।
आप यह कि हल के बैल सा जोता हूँ मैं।
खो न जाऊँ भीड़ में छोटी चवन्नी की तरह,
रोज़ खु़द को वक़्त की इस जेब में टोता हूँ मैं।
जानकर मौसम नहीं खुशियाँ उगा सकता कभी,
टूटता विश्वास फिर भी कोशिशें बोता हूँ मैं।
मुझको सहलाती है पीडा़ अपने बेटे की तरह,
जब कमी होती है अक्सर प्यार में, रोता हूँ मैं।
नम हुई आँखें तो पलकें मूंद लेता हूँ मगर,
सोचना मत ज़िन्दगी मेरी कभी सोता हूँ मैं।
फिर हैं चौकन्ना समस्यायें बहेलिये की तरह,
देखना ऐ सांस! तेरा पालतू तोता हूँ मैं।
Wednesday, June 3, 2009
एक शायर/विनय मिश्र
जैसा कि आप जानते हैं कि एक शायर स्तम्भ में एक ही ग़ज़लकार की रचनायें हर माह प्रकाशित होंगी।आज सबसे पहले विनय मिश्र की ग़ज़लों से इस स्तम्भ की शुरुआत कर रहा हूँ।
विनय मिश्र वर्तमान दौर में ग़ज़ल विधा के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं और ग़ज़ल के लिये पूरे मनोयोग से जुडे़ हुए हैं।
जीवन परिचय-जन्म तिथि-१२ अगस्त १९६६,शिक्षा-काशी हिन्दू विश्वविद्यालय,वाराणसी से एम०ए०,पी०एच०डी०[हिन्दी],देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में ग़ज़लों,कविताओं और आलेखों का प्रकाशन,’शब्द कारखाना’[हिन्दी त्रैमासिक]के ग़ज़ल अंक के अतिथि सम्पादक,सम्प्रति-राजकीय कला स्नातकोत्तर महाविद्यालय अलवर[राज०]के हिन्दी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत।
१-नहीं यूँ ही हवा बेकल है मुझमें-जीवन परिचय-जन्म तिथि-१२ अगस्त १९६६,शिक्षा-काशी हिन्दू विश्वविद्यालय,वाराणसी से एम०ए०,पी०एच०डी०[हिन्दी],देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में ग़ज़लों,कविताओं और आलेखों का प्रकाशन,’शब्द कारखाना’[हिन्दी त्रैमासिक]के ग़ज़ल अंक के अतिथि सम्पादक,सम्प्रति-राजकीय कला स्नातकोत्तर महाविद्यालय अलवर[राज०]के हिन्दी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत।
नहीं यूँ ही हवा बेकल है मुझमें।
है कोई बात जो हलचल है मुझमें।
सुनाई दे रही है चीख कोई,
ये किसकी जिन्दगी घायल है मुझमें।
बहुत देखा बहुत कुछ देखना है,
अभी मीलों हरा जंगल है मुझमें।
लगाये साजिशों के पेड़ किसने,
फला जो नफ़रतों का फल है मुझमें।
बुझाई प्यास की भी प्यास जिसने,
अभी उस ज़िन्दगी का जल है मुझमें।
मेरी हर साँस है तेरी बदौलत,
तू ही तो ऐ हवा पागल है मुझमें।
सवालों में लगी हैं इतनी गाँठें,
कहूँ कैसे कि कोई हल है मुझमें।
दिनोंदिन और धँसती है ग़रीबी,
यूँ बढ़ता कर्ज़ का दलदल है मुझमें।
हवाओं में बिखरता जा रहा हूँ,
कहूँ कैसे सुरक्षित कल है मुझमें।
२-रौशनी है बुझी-बुझी अबतक-
रौशनी है बुझी-बुझी अबतक।
गुल खिलाती है तीरगी अबतक।
एक छोटी-सी चाह मिलने की,
वो भी पूरी नहीं हुई अबतक।
बात करता था जो जमाने की,
वो रहा खुद से अजनबी अबतक।
देखकर तुमको जितनी पाई थी,
उतनी पाई न फ़िर खुशी अबतक।
मौत को जीतने की खातिर ही,
दाँव पर है ये ज़िन्दगी अबतक।
मेरा का़तिल था मेरे अपनों में,
मुझको कोई ख़बर न थी अबतक।
३-गिरने न दिया मुझको हर बार संभाला है-
गिरने न दिया मुझको हर बार संभाला है।
यादों का तेरी कितना अनमोल उजाला है।
वो कैसे समझ पाये दुनिया की हकीक़त को,
सांचे में उसे अपने जब दुनिया ने ढाला है।
ये दिन भी परेशाँ है ये रात परेशाँ है,
लोगों ने सवालों को इस तरह उछाला है।
इंसानियत का मन्दिर अबतक न बना पाये,
वैसे तो हर इक जानिब मस्जिद है शिवाला है।
सपनों में भी जीवन है फुटपाथ पे सोते हैं,
जीने का हुनर अपना सदियों से निराला है।
सब एक खुदा के ही बन्दे हैं जहाँ भर में,
नज़रों में मेरी कोई अदना है न आला है।
गंगा भी नहा आये तन धुल भी गया लेकिन,
मन पापियों का अबतक काले का ही काला है।
४-एक सुबह की भरी ताज़गी अब भी है-
एक सुबह की भरी ताज़गी अब भी है।
इस उजास में एक नमी-सी अब भी है।
ये दुनिया आज़ाद हुई कैसे कह दूँ,
ये दुनिया तो डर की मारी अब भी है।
पेड़ बहुत हैं लेकिन सायेदार नहीं,
धूप सफ़र में थी जो तीखी अब भी है।
उजड़ गया है मंजर खुशियों का लेकिन,
इक चाहत यादों में बैठी अब भी है।
कान लगाकर इनसे आती चीख सुनो,
इन गीतों में घायल कोई अब भी है।
हर पल दुविधाओं में रहती है लेकिन,
विश्वासों से भरी ज़िन्दगी अब भी है।
५-सूरजमुखी के फूल-
पूरब की ओर मुँह किये सूरजमुखी के फूल।
होते ही भोर खिल उठे सूरजमुखी के फूल।
उड़ने लगीं हवाइयाँ चेहरे पे ओस के,
जब खिलखिलाके हँस पड़े सूरजमुखी के फूल।
तुम दिन की बात करते हो लेकिन मेरे लिये,
रातों के भी हैं हौसले सूरजमुखी के फूल।
वो भी इन्हीं की याद में डूबा हुआ मिला,
जिसको पुकारते हैं ये सूरजमुखी के फूल।
सूरज का साथ देने की हिम्मत लिये हुए,
धरती की गोद में पले सूरजमुखी के फूल।
मुश्किल की तेज धूप का है सामना मगर,
जीते हैं सिर उठा के ये सूरजमुखी के फूल |
सूरज वो आसमान का मुझमें उतर पडा़,
इक बात ऐसी कह गये सूरजमुखी के फूल।
Thursday, May 21, 2009
फुलवारी/पाँच रचनाकारों की रचनायें
फुलवारी के इस अंक में प्रस्तुत है इन ग़ज़लकारों की रचनायें-
१-जहीर कुरेशी की ग़ज़ल-
तिमिर की पालकी निकली अचानक।
घरों से गुल हुई बिजली अचानक।
तपस्या भंग-सी लगने लगी है,
कहाँ से आ गयी ’तितली’ अचानक।
अभी सामान तक खोला नहीं था,
यहाँ से भी हुई बदली अचानक।
समझ में आ रहा है स्वर पिता का,
विमाता कर गई चुगली अचानक।
तुम्हारी साम्प्रदायिक-सोच सुनकर,
मुझे आने लगी मितली अचानक।
ये पापी पेट भरने की सजा है,
नचनिया, बन गई तकली अचानक।
मछेरे की पकड़ से छूटते ही,
नदी में जा गिरी मछली अचानक।
पता-समीर काटेज,बी-२१,सूर्य नगर
शब्द प्रताप आश्रम के पास,
ग्वालियर-४७४०१२[म०प्र०]
मोबाइल न०-०९४२५७९०५६५
२-रामकुमार 'कृषक' की ग़ज़ल-
हम हुए आजकल नीम की पत्तियाँ।
लाख हों रोग हल नीम की पत्तियाँ।
गीत गोली हुए शेर शीरीं नहीं,
कह रहे हम ग़ज़ल नीम की पत्तियाँ।
खून का घूँट हम खून वे पी रहे,
स्वाद देंगी बदल नीम की पत्तियाँ।
सुर्ख संजीवनी हों सभी के लिये,
हो रही खुद खरल नीम की पत्तियाँ।
आग की लाग हैं सूखते बाँसवन,
अब न होंगी सजल नीम की पत्तियाँ।
वक्त हैरान हिलती जड़ें बरगदी,
सब कहीं बादख़ल नीम की पत्तियाँ।
एक छल है गुलाबी फसल देश में,
दरअसल हैं असल नीम की पत्तियाँ।
पता-सी-३/५९ नागार्जुन नगर,
सादतपुर विस्तार,
दिल्ली-११००९४
३-अनु जसरोटिया की ग़ज़ल-
धूप में मेरे साथ चलता था।
वो तो मेरा ही अपना साया था।
वो ज़माना भी कितना अच्छा था,
मिलना-जुलना था आना-जाना था।
यक-बयक माँ की आँख भर आई,
हाल बेटे ने उसका पूछा था।
दिल मचलता है चाँद की खातिर,
ऐसा नादां भी इसको होना था।
उसको आना था ऐसे वक्त कि जब,
कोई ग़फ़लत की नींद सोता था।
दिल है बेचैन उसके जाने पर,
बेवफाई ही उसका पेशा था |
पता-इन्दिरा कालोनी,
कठुआ-१८४१०१
[जम्मू और कश्मीर]
४-दरवेश भारती की ग़ज़ल-
धन की लिप्सा ये रंग लायेगी।
आपसी फ़ासिले बढा़एगी।
तेरे जीवन का दम्भ टूटेगा,
ऐ ख़िज़ां जब बहार आएगी।
मुल्क में क्या बचेगा कुछ यारों,
बाड़ जब खुद ही खेत खाएगी।
इन उनींदे अनाथ बच्चों को,
लोरियाँ दे हवा सुलाएगी।
अणुबमों से सज गया संसार,
कैसे कुदरत इसे बचाएगी।
हम हैं ’दरवेश’ हमको ये दुनिया,
क्या रुलाएगी,क्या हँसाएगी।
पता-पोस्ट बाक्स न०-४५,
रोहतक -१२४००१[हरियाणा]
मोबाइल न०-०९२६८७९८९३०
५-शिवकुमार ’पराग’ की ग़ज़ल-
ऐसी कविता प्यारे लिख।
जो मन को झंकारे लिख।
लौट के धरती पर आ जा,
अब ना चाँद सितारे लिख।
हवा-हवाई ही मत रह,
कुछ तो ठोस-करारे लिख।
पाला मार रहा सबको,
लिख,जलते अंगारे लिख।
दुरभिसंधियाँ फैल रहीं,
इनके वारे-न्यारे लिख।
समझौतों की रुत में भी,
खुद्दारी ललकारे लिख।
सिर पर है बाज़ार चढा़,
जो यह ज्वार उतारे लिख।
जहाँ-जहाँ अँधियारे हैं,
वहाँ-वहाँ उजियारे लिख।
हार-जीत जो हो सो हो,
लेकिन मन ना हारे लिख।
पता-म०न० ५/१४० एस-१०
संजय नगर[रमरेपुर],अकथा,
पहड़िया,वाराणसी[उ०प्र०]
मो०न०-९४१५६९४३६१
१-जहीर कुरेशी की ग़ज़ल-
तिमिर की पालकी निकली अचानक।
घरों से गुल हुई बिजली अचानक।
तपस्या भंग-सी लगने लगी है,
कहाँ से आ गयी ’तितली’ अचानक।
अभी सामान तक खोला नहीं था,
यहाँ से भी हुई बदली अचानक।
समझ में आ रहा है स्वर पिता का,
विमाता कर गई चुगली अचानक।
तुम्हारी साम्प्रदायिक-सोच सुनकर,
मुझे आने लगी मितली अचानक।
ये पापी पेट भरने की सजा है,
नचनिया, बन गई तकली अचानक।
मछेरे की पकड़ से छूटते ही,
नदी में जा गिरी मछली अचानक।
पता-समीर काटेज,बी-२१,सूर्य नगर
शब्द प्रताप आश्रम के पास,
ग्वालियर-४७४०१२[म०प्र०]
मोबाइल न०-०९४२५७९०५६५
२-रामकुमार 'कृषक' की ग़ज़ल-
हम हुए आजकल नीम की पत्तियाँ।
लाख हों रोग हल नीम की पत्तियाँ।
गीत गोली हुए शेर शीरीं नहीं,
कह रहे हम ग़ज़ल नीम की पत्तियाँ।
खून का घूँट हम खून वे पी रहे,
स्वाद देंगी बदल नीम की पत्तियाँ।
सुर्ख संजीवनी हों सभी के लिये,
हो रही खुद खरल नीम की पत्तियाँ।
आग की लाग हैं सूखते बाँसवन,
अब न होंगी सजल नीम की पत्तियाँ।
वक्त हैरान हिलती जड़ें बरगदी,
सब कहीं बादख़ल नीम की पत्तियाँ।
एक छल है गुलाबी फसल देश में,
दरअसल हैं असल नीम की पत्तियाँ।
पता-सी-३/५९ नागार्जुन नगर,
सादतपुर विस्तार,
दिल्ली-११००९४
३-अनु जसरोटिया की ग़ज़ल-
धूप में मेरे साथ चलता था।
वो तो मेरा ही अपना साया था।
वो ज़माना भी कितना अच्छा था,
मिलना-जुलना था आना-जाना था।
यक-बयक माँ की आँख भर आई,
हाल बेटे ने उसका पूछा था।
दिल मचलता है चाँद की खातिर,
ऐसा नादां भी इसको होना था।
उसको आना था ऐसे वक्त कि जब,
कोई ग़फ़लत की नींद सोता था।
दिल है बेचैन उसके जाने पर,
बेवफाई ही उसका पेशा था |
पता-इन्दिरा कालोनी,
कठुआ-१८४१०१
[जम्मू और कश्मीर]
४-दरवेश भारती की ग़ज़ल-
धन की लिप्सा ये रंग लायेगी।
आपसी फ़ासिले बढा़एगी।
तेरे जीवन का दम्भ टूटेगा,
ऐ ख़िज़ां जब बहार आएगी।
मुल्क में क्या बचेगा कुछ यारों,
बाड़ जब खुद ही खेत खाएगी।
इन उनींदे अनाथ बच्चों को,
लोरियाँ दे हवा सुलाएगी।
अणुबमों से सज गया संसार,
कैसे कुदरत इसे बचाएगी।
हम हैं ’दरवेश’ हमको ये दुनिया,
क्या रुलाएगी,क्या हँसाएगी।
पता-पोस्ट बाक्स न०-४५,
रोहतक -१२४००१[हरियाणा]
मोबाइल न०-०९२६८७९८९३०
५-शिवकुमार ’पराग’ की ग़ज़ल-
ऐसी कविता प्यारे लिख।
जो मन को झंकारे लिख।
लौट के धरती पर आ जा,
अब ना चाँद सितारे लिख।
हवा-हवाई ही मत रह,
कुछ तो ठोस-करारे लिख।
पाला मार रहा सबको,
लिख,जलते अंगारे लिख।
दुरभिसंधियाँ फैल रहीं,
इनके वारे-न्यारे लिख।
समझौतों की रुत में भी,
खुद्दारी ललकारे लिख।
सिर पर है बाज़ार चढा़,
जो यह ज्वार उतारे लिख।
जहाँ-जहाँ अँधियारे हैं,
वहाँ-वहाँ उजियारे लिख।
हार-जीत जो हो सो हो,
लेकिन मन ना हारे लिख।
पता-म०न० ५/१४० एस-१०
संजय नगर[रमरेपुर],अकथा,
पहड़िया,वाराणसी[उ०प्र०]
मो०न०-९४१५६९४३६१
समकालीन ग़ज़ल
समकालीन ग़ज़ल,ग़ज़ल पर केन्द्रित एक प्रतिनिधि पत्रिका है जिसमें जून २००९ से हर माह अपने समय के सरोकारों से जुडी़ हुई रचनायें ही प्रकाशित होंगी। इसमें शामिल रचनाकारों के लिये ये जरूरी है कि वे रचनायें भेजते समय ग़ज़ल के शिल्प और छन्दानुशासन का पूरा ध्यान रखें।
सभी ग़ज़लकार मित्रों से यह आग्रह है कि वे अपनी उम्दा रचनायें ई मेल द्वारा - pbchaturvedi@in.com पर भेज सकते हैं|नोट:-एक शायर स्तम्भ में एक ही ग़ज़लकार की कई रचनायें हर माह प्रकाशित होंगी। इसमें शामिल होने के लिये ये आवश्यक है कि ग़ज़लकार अपनी दस मौलिक रचनाओं के साथ अपना एक फ़ोटो एवं संक्षिप्त जीवन परिचय अवश्य प्रेषित करें।
फ़ुलवारी स्तम्भ में कई ग़ज़लकारों की एक-एक रचना प्रकाशित होंगी।चुनिन्दा शेर स्तम्भ में चुने हुए कुछ ऐसे शेर प्रकाशित होंगे,जो अपने आप में पूर्ण होंगे।
विभिन्न शायरों के कुछ चुनिन्दा शेर-
१-विज्ञान व्रत -
मैं कुछ बेहतर ढूढ़ रहा हूँ।
घर में हूँ घर ढूढ़ रहा हूँ।
२-अश्वघोष-
मुझमें एक डगर ज़िन्दा है।
यानी एक सफ़र ज़िन्दा है।
३-ज्ञान प्रकाश विवेक-
किसी के तंज़ का देता न था जवाब मगर,
ग़रीब आदमी दिल में मलाल रखता था।
४-जयकृष्ण राय’तुषार’-
भँवर में घूमती कश्ती के हम ऐसे मुसाफ़िर हैं,
न हम इस पार आते हैं न हम उस पार जाते हैं।
५-बालस्वरूप राही-
सीधे-सच्चे लोगों के दम पर ही दुनिया चलती है,
हम कैसे इस बात को मानें कहने को संसार कहे।
Monday, May 4, 2009
बनारस के शायर/मेयार सनेही
मैं इस ब्लाग का शुभारम्भ बनारस के जाने माने मशहूर शायर ज़नाब "मेयार सनेही"जी से कर रहा हूँ। इनका जन्म ०७-०३-१९३६ में हुआ। बनारस के कवि सम्मेलनों, कवि गोष्ठियों और मुशायरों को अपने शेरों से आप एक नई ऊँचाई प्रदान करते हैं । आप की ग़ज़लें,नज़्म विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में समय समय पर छपती आ रही हैं और आप की १९८४ में एक नज़्म की पुस्तक "वतन के नाम पाँच फ़ूल" भी प्रकाशित हो चुकी है। लगभग ४० सालों से आप साहित्य सर्जना में लगे हैं और ये क्रम अभी जारी है।
निवास-एस.७/९बी,गोलघर कचहरी,वाराणसी।
सम्पर्कसूत्र-९९३५५२८६८३
तो लीजीए उनकी ग़ज़लों का आनन्द........
1. ग़ज़ल/ कैसे वो पह्चाने ग़म :-
कैसे वो पह्चाने ग़म ।
पत्थर है क्या जाने ग़म।
दुनिया मे जो आता है,
आता है अपनाने ग़म।
नये गीत लिखवाने को,
आये किसी बहाने ग़म।
जब तक मेरी साँस चली,
बैठे रहे सिरहाने ग़म।
मैनें सोचा था कुछ और,
ले आये मयख़ाने ग़म।
जिसको अपना होश नहीं,
उसको क्या गरदाने ग़म।
दिल सबका बहलाते हैं,
जैसे हों अफ़साने ग़म।
क्या कहिये ’मेयार’ उसे,
जो खुशियों को माने ग़म।
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2. ग़ज़ल/ मोहब्बत की नुमाइश चल रही है :-
मोहब्बत की नुमाइश चल रही है।
मगर परदे में साजिश चल रही है।
वो बातें जिनसे मैं जख़्मी हुआ था,
अब उन बातों में पालिश चल रही है।
वो इक सजदा जो मुझसे हो न पाया,
उसी को लेके रंजिश चल रही है।
वो देखो जिन्दगी ठहरी हुई है,
मगर जीने की ख़्वाहिश चल रही है।
कोई ’मेयार’ होगा जिसकी खातिर,
सिफ़ारिश पर सिफ़ारिश चल रही है।
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3.ग़ज़ल/मेयार सनेही/कौन बे-ऐब है पारसा कौन है :-
कौन बे-ऐब है पारसा कौन है ?
किसको पूजे यहाँ देवता कौन है ?
जब चलन में है दोनों तो क्या पूछना,
कौन खोटा है इनमें खरा कौन है ?
ज़हर देता रहे औ’ मसीहा लगे,
आप जैसा यहाँ दूसरा कौन है?
रूप है इल्म है सौ हुनर हैं मगर,
ऐसी चीजों को अब पूछता कौन है?
अन्न उपजाने वाला मरा भूख से,
इस मुक़द्दर का आख़िर ख़ुदा कौन है ?
कौन ’मेयार’है यह नहीं है सवाल,
ये बताएँ कि वो आपका कौन है ?
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4. ग़ज़ल/ हसीं भी है मोहब्बत की अदाकारी :-
हसीं भी है मोहब्बत की अदाकारी भी रखता है।
मगर उससे कोई पूछे वफ़ादारी भी रखता है ।
इलाजे-जख़्मे-दिल की वो तलबगारी भी रखता है,
नये जख़्मों की लेकिन पूरी तैयारी भी रखता है।
इक ऐसा शख्स मेरी ज़िन्दगी में हो गया दाख़िल,
जो मुझको चाहता है मुझसे बेज़ारी भी रखता है।
वो मत्था टेकता है गिड़गिड़ाता है कि कुछ दे दो,
फ़िर उसके बाद ये दावा कि खुद्दारी भी रखता है।
वही है आजकल का बागबाँ जो हाथ में अपने,
दरख़्तों की कटाई के लिये आरी भी रखता है।
ख़ुदा के नाम पर भी तुम उसे बहका नहीं सकते,
वो दीवाना सही लेकिन समझदारी भी रखता है।
तुम उसके नर्म लहजे पर न जाओ ऐ जहाँ वालों,
वो है ’मेयार’ जो लफ़्जों में चिनगारी भी रखता है।----------------------------------------------
मेयार सनेही जी ने नये-नये रदीफ़ और काफ़िया को लेकर कई ग़ज़लें कही हैं जैसे इस ग़ज़ल में.........
5. ग़ज़ल/ इक गीत लिखने बैठा था :-
इक गीत लिखने बैठा था मैं कल पलाश का।
ये बात सुन के हँस पडा़ जंगल पलाश का ।
साखू को बे-लिबास जो देखा तो शर्म से,
धरती ने सर पे रख लिया आँचल पलाश का।
रितुराज के ख़याल में गुम होके वन-परी,
कब से बिछाये बैठी है मख़मल पलाश का।
सूरज को भी चराग़ दिखने लगा है अब,
बढ़ता ही जा रहा है मनोबल पलाश का।
रंगे-हयात है कि है मौसम का ये लहू,
या फ़िर किसी ने दिल किया घायल पलाश का।
तनहा सफ़र था राह के मंजर भी थे उदास,
अच्छा हुआ कि मिल गया संबल पलाश का।
’मेयार’ इन्कलाब का परचम लिये हुए,
उतरा है आसमान से ये दल पलाश का।
Thursday, April 30, 2009
बनारस के कवि और शायर/प्रसन्न वदन चतुर्वेदी
आप सभी को मेरा नमस्कार,
आज मैं आप के सामने एक नया ब्लाग लेकर उपस्थित हूँ,परन्तु ये ब्लाग मैंने बनारस के उन कवियों,शायरों के लिये बनाया है जो इस अत्याधुनिक तकनीक से अनभिग्य हैं।बहुत से नये और पुराने कवि,शायर इन्टरनेट की इस नई सुविधा से वंचित हैं और अच्छे रचनाकार होते हुए भी वे ब्लाग की दुनिया में अपरिचित हैं।मैंने सोचा क्यों ना उनके लिये भी कुछ किया जाय।यहाँ हर माह एक रचनाकार की रचनायें आप को पढ़ने को मिलेंगी।आशा ही नही,वरन पूर्ण विश्वास है कि आप का सहयोग जरूर मिलेगा।है न......................प्रसन्न वदन चतुर्वेदी
आज मैं आप के सामने एक नया ब्लाग लेकर उपस्थित हूँ,परन्तु ये ब्लाग मैंने बनारस के उन कवियों,शायरों के लिये बनाया है जो इस अत्याधुनिक तकनीक से अनभिग्य हैं।बहुत से नये और पुराने कवि,शायर इन्टरनेट की इस नई सुविधा से वंचित हैं और अच्छे रचनाकार होते हुए भी वे ब्लाग की दुनिया में अपरिचित हैं।मैंने सोचा क्यों ना उनके लिये भी कुछ किया जाय।यहाँ हर माह एक रचनाकार की रचनायें आप को पढ़ने को मिलेंगी।आशा ही नही,वरन पूर्ण विश्वास है कि आप का सहयोग जरूर मिलेगा।है न......................प्रसन्न वदन चतुर्वेदी
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